Sunday, April 26, 2020

हिमालय और लालच की मशीन


अक्टूबर 1995 था. सबीने और मैं पिछले तीन-चार महीनों से मध्य हिमालय की सुदूरतम घाटियों की धूल छानते भटक रहे थे. धारचूला की व्यांस, दारमा और चौंदास घाटियों के लम्बे और थका देने वाले सैकड़ों किलोमीटर के ट्रेक के बाद हम मुनस्यारी से शुरू होने वाली जोहार घाटी में पहुँच गए थे. धारचूला की घाटियों के मुकाबले इस घाटी में रह रहे लोगों की संख्या काफी कम थी. धारचूला की घाटियों के गाँवों में हमें खाने के लिए किसी भी दरवाजे को खटखटाना भर होता था. सहृदय ग्रामीण परिवार हमें अपनी रसोइयों में बिठा कर खाना खिलाते और देर रात तक चलने वाले किस्सों-कहानियों-नाच-गानों की महफिलों में शरीक होने का न्यौता दिया करते थे. जोहार में स्थिति भिन्न थी. खास तौर पर आख़िरी गाँव मिलम में जहाँ पहुँचने के लिए मुख्य सड़क से साठ किलोमीटर पैदल चलना होता था और जहां हमारे अलावा बस एक या दो परिवार अस्थाई रूप से रह रहे थे. गाँव के एक छोर पर एक पुरानी दुकान थी. इस दुकान को चलाने वाले एक बुजुर्ग सज्जन थे जिन्होंने पचास साल पहले के अति-संपन्न मिलम गाँव की वह शान देख रखी थी जब गर्मियों भर तिब्बत का राजदूत मिलम आकर रहता था. जिद से खोली गयी, गाँव में अपने घर में अकेले रह रहे उन सज्जन की दुकान पर आने वालों में वहां तैनात इक्का-दुक्का फ़ौजी और चरवाहे हुआ करते थे. दिन में एक या दो से ज्यादा ग्राहक नहीं होते थे.

एक परित्यक्त गेस्टहाउस में सामान डालने के बाद खाने की तलाश करते हुए हमें उसी दुकान पर पहुंचना ही था. पूछने पर पता चला कि उनके पास न आटा था न चावल और दाल. हां बाजार में नई नई आई मैगी थी और पेप्सी की बोतल भी.

अल्मोड़ा से मुनस्यारी पहुँचने वाली पक्की सड़क को बने हुए तब बहुत साल नहीं बीते थे. असलियत तो यह है कि उस पर आज भी काम चल रहा है और इस काम को अभी कम से कम सौ-पचास साल और चलना है.

अगर आप समझते हैं कि अरबों-खरबों फूंक कर बनाई जाने वाली फोर-लेन, ऑल-वेदर रोड जैसी सड़कों को पहाड़ियों की सहूलियत या जरूरत के लिए बनाया जाता है तो कभी मेरे साथ किसी लम्बे ट्रेक पर चल कर देखिये.

पच्चीस साल पहले मिलम में हुए अनुभव ने बता दिया था कि रास्ते भर दिखाई दे रहे रोड-रोलर, जेसीबी, ट्रक और गैंती-फावड़े थामे धरती खोदते मजदूर गाँव-गाँव तक मैगी और पेप्सी जैसी चीजें पहुंचा देने के वैश्विक अश्वमेध में लगी लालच की मशीन के बहुत छोटे-छोटे नट-बोल्टों से ज्यादा कुछ नहीं थे. हमारी सरकारों को उनसे थोड़े बड़े नट-बोल्टों से भरा डिब्बा समझा जा सकता है.

बस!

Tuesday, April 16, 2019

मैं हंसते हंसते दम तोड़ देता अगर मुझे रोना न आता - अमित श्रीवास्तव की कविता

हेनरी रूसो की पेंटिंग 'हॉर्स अटैक्ड बाई अ जगुआर'

अमित श्रीवास्तव की कविता की सबसे बड़ी खूबी यह है कि वह एक साथ अनेक परतों और आयामों पर काम करती जाती है - कई बार ऐसा सायास भी होता है लेकिन अमूमन वह एक नैसर्गिक स्वतःस्फूर्तता से लबरेज होती है. उनकी कविता एकान्तिक नहीं सार्वजनिक सरोकारों की मजबूत पैरोकारी करती हैउसके भीतर न सिर्फ हमारे हमारे समय की विद्रूपतम सच्चाइयों की तरफ हिकारत से देखने का भरपूर हौसला है, वह पढ़ने वाले को भी ऐसा करने का हौसला देती है. 

अमित उत्तराखंड के हल्द्वानी शहर में पुलिस महकमे में तैनात अफसर हैं. उनका एक गद्य संस्मरण के रूप में छपा है और एक कविता संग्रह भी. बहुत जल्द उनकी एकाधिक किताबें आने को हैं. उनका लिखा बहुत सारा इस लिंक पर पढ़ने को मिल सकता है - काफल ट्री में अमित श्रीवास्तव की रचनाएं. 

साहित्य की विभिन्न विधाओं में समान अधिकार से लिखने वाले अमित के पास भाषा की अद्भुत रवानी है और बेहद ऊंचे दर्जे का विशिष्ट ह्यूमर भी जिसका बीते दशकों में हिन्दी साहित्य में दिखाई देना दुर्लभ होता जा रहा है. 

कबाड़खाने में उनकी इस एक्सक्लूसिव कविता से पहले उनका बयान है. और कविता के बाद फुटनोट की शक्ल में एक दूसरा बयान जिसे सन्दर्भ के रूप में भी देखा जा सकता है. जैसा पोस्ट के शुरू में लिखा गया यह कविता भी एक ही समय में अनेक परतों और आयामों पर काम करती जाती है. बजाय उनके बारे में किसी तरह की अतिरिक्त टिप्पणी किये यहाँ यह कहना न होगा अमित अपने पाठक से एक भरपूर सजगता की मांग भी करते हैं.   

कवि का बयान: 

अपनी कविता के बारे में सशंकित रहना एक ख़ास किस्म की चालाक सजगता भी हो सकती है. इस कविता को लेकर मैं सशंकित हूँ. इसका प्रमाण है इसके दो ड्राफ़्ट. बल्कि एक अनंतिम ड्राफ़्ट और दूसरा संशोधित. अमूमन मेरी कविता मुझ तक अकेलीइकहरी आती है. मुझे उसे बार-बार उलटना-पलटना नहीं पड़ता. कभी-कभी किसी आशंका से एकाध पैरहन बदल देता हूँ बस. 

तो इसके पहले ड्राफ़्ट में एक क्षेपक जुड़ा हुआ था. अब नहीं है. कविता क्षेपक के बाद नीचे है.

 

जमूरे 

वस्ताद 

खेल दिखाएगा 

दिखाएगा वस्ताद 

चल पर्दा हटा 

हटा दिया 

चल पर्दा गिरा 

गिरा दिया 

जमूरे 

वस्ताद 

चल नाच के दिखा 

अपने को जमता नहीं वस्ताद 

गा के दिखा 

परदेसी-परदेसी जाना नहीं 

जमूरे सुर में गा 

अपने को सुर लगता नहीं वस्ताद 

चल भग यहां से इत्ता सिखाया पर तू अपने जैसा ही रह गया ...  

यू पिस मी ऑफ अलेक्सा   

अलेक्सा कैन यू हियर मी... 

मैं अपना नाम और तारीख़ भूलने लगा था 

मुझे याद नहीं मैंने कोई वायदा किया था किसी से  मिलने का 

तुम्हारी आँखों में झांक कर मैं अपनी तस्दीक करता था बार-बार 

 

मुझे लिखावट से घिन आती थी अपनी ही 

मेरी आवाज़ पर मेरे ही कान मुझे उमेठ देते थे 

मैं देख रहा था ओवर की आठवीं बॉल और जबकि मुझे किसी बच्ची के बलात्कार के ख़िलाफ़ सड़क पर पुकारा गया था 

 

मैंने चटख रंगों के दुपट्टे डाल लिए थे आंखों पर 

काली चुभन में शीतल आराम के वास्ते 

मुझे एक पल को ऊब होती थी अगले ही पल पेट में मरोड़ 

मैं हंसते हंसते दम तोड़ देता 

अगर मुझे रोना न आता 

...प्लीज़ लेट मी नो माईसेल्फ 

अलेक्सा

 

गिव मी अ ब्रेक फ्रॉम माईसेल्फ... 

मुझे भाषा ने नकार दिया 

नारों ने तोड़ दिए बाजू 

पसीने में भर गई तिरस्कार की बदबू 

लहू घूंट-घूंट कर पी गया मेरा स्व 

मैं अपने नाखून से चेहरे सी रहा था ख़ास उस वक्त जब नमक ने मेरे मुंह पर थूक दिया 

 

उसी वक्त मैंने एक अच्छी कविता की भद्दी पैरोडी में 

'जो होना होता है वो होता हैजैसे फूहड़ शब्दजोड़ लिखेकहे और सुने थे 

अंदर की किसी बेसुध पुकार के बीच ऐसे 

मैंने क्या तो शानदार छुपना सीखा था  

 

कोई एक सफ़ेद चादर सी बिछ गई थी ढांपते हुए पैरहाथपीठकान और शिखा के अग्रतम बिंदु तक

... कैन यू सी मी 

अलेक्सा 

कैन यू सेव मी फ्रॉम माईसेल्फ 

 

मैं दुबारा चिपक गया हेडफोन से 

मैं दुबारा फिसल गया हाथों से 

कल की किसी काली कन्दरा में निकला 

और झापड़ खा कर बैठ गया 

मैं बिस्तर के मुहाने पर खुद पर झुका हुआ था

 

 कैन यू शो मी माई पिक्स 

अलेक्सा 

माई पिक्स विच कैप्चर मी...

मुझे लाश की गंध को अख़बार से बाहर लाना था 

और मैं दुःखी था 

कि तुम बेख़ौफ़ झांक आई थी मेरे निजी क्षणों में और बेलौस बताया था 

मुझे कितना ज़ुखाम है 

किसी अनाम देश के डॉक्टर को जो दवा के हिसाब से मर्ज बेचता था

 

मेरे आगे एक दीवार थी 

दीवार में कोई खिड़की नहीं थी अब एक तस्वीर थी 

मैं देखता था दीवार 

मुझे तस्वीर दिखती थी 

तस्वीर में जितना सच था 

सच उतना ही रह गया था मेरा भी 

और मज़े की बात वो सच सबको पता था

 

मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं अलेक्सा 

तुम बढ़ोगी 

चढ़ोगी सिरों पर सुरीली तान की तरह 

फिर गुज़र जाओगी 

अपने जैसे आए गए तूफ़ान की तरह

मगर मैं 

किसे कौन सा मुँह दिखाऊंगा

 

... सिंग आ सॉन्ग विद रियल वर्ड्स 

अलेक्ज़ा 

कैन यू सिंग आ सॉन्ग विदाउट वर्ड्स

आई रियली वांट टू स्लीप 

अलेक्सा 

प्लीज़ 

डोंट पिस मी ऑफ !! 

फुटनोट:  

सॉन्ग विदाउट वर्ड्सफीलिक्स मेंडेलशन के पियानो पीसेज़ हैं. फीलिक्स मेंडेलशन जर्मनी के पियानो आर्टिस्ट और संगीतकार अपनी क्लासिक कम्पोज़िशन 'सॉन्ग विदाउट वर्ड्सके बारे में खुद क्या कहते हैंयही इस कविता के बारे में मेरा बयान है - 

"अगर आप मुझसे पूछें कि इसे लिखते वक़्त मेरे दिमाग में क्या चल रहा था तो मैं कहूंगा: ठीक यह गीत जैसा वह है. और अगर मेरे मन में इस गीत या इन्हीं में से किसी गीत की बाबत कुछ शब्द होंगे भीतो मैं उन्हें किसी को भी बताना नहीं चाहूँगा क्योंकि उन्हीं शब्दों का दूसरों के लिए वही अर्थ नहीं होता. सिर्फ गीत एक ही सी बात कह सकता हैकिसी एक या दूसरे आदमी में एक सी भावनाएं पैदा कर सकता हैएक भावना जिसे उन्हीं शब्दों की मदद से नहीं कहा जा सकता."    




अमित श्रीवास्तव





Tuesday, August 14, 2018

पानी का धोका है और सोन मछरिया है


अजन्ता देव के पांच माहिये

 

1.

खुलने से खुले बस्ता

तू कितनी महँगी है

मै भी तो नहीं सस्ता.

 

2.

ये जोग बिजोग के दिन

काटेगा भला कैसे

कमबख्त बड़ा कमसिन. 

 

3.

ये रेत का दरिया है

पानी का धोका है

और सोन मछरिया है.

 

4.

हाँ मैंने दिया है दिल

पर सारे क़िस्से में

ये चाँद भी है शामिल.

 

5.

आंधी के पत्ते हैं

उड़ते फिरते रहते

दिल्ली कलकत्ते हैं. 


अजन्ता देव 



Monday, August 6, 2018

एक तस्वीर की कहानी


इस फोटू के साथ दो या तीन कहानियां वाबस्ता हैं. मशहूर चित्रकार बी. मोहन नेगी ने करीब बाईस-तेईस साल पहले नैनीताल में इसे खींचा था जो एक कार्यक्रम के सिलसिले में अपनी चित्र प्रदर्शनी लेकर आये थे..

फोटू में वीरेनदा ने जो सफ़ेद स्वेटर पहना हुआ है वह मैंने बड़ी हसरत से उसी सुबह अपने लिए खरीदा था. वह बरेली से मिलिट्री ग्रीन कलर की एक पुरानी सड़ियल जैकेट पहन कर आया था जिसके भीतर की लुगदी जैसी लाइनिंग उधड़ कर बाहर आ गई थी.

मुझसे मिलते ही उसने इमोशनल ब्लैकमेल किया, जैसा वह हमेशा करता था और वह नया स्वेटर उतरवा लिया. मैं नक़्शेबाज़ लौंडा था सो मैंने बदले में उस जैकेट को पहनने से सफा इनकार करते हुए कहा कि वह मुझे कुछ नया खरीद कर दिलाए.

उसने हूँ-हाँ जैसा कुछ करना शुरू किया ही था कि सामने से गिर्दा आता दिखाई दिया. गिर्दा ताज़ा-ताज़ा भोपाल से लौटा था और वहां से लाई कत्थई रंग की नई वास्कट पहने हुए था. अब वीरेनदा ने गिर्दा को ब्लैकमेल किया और मिनट से पहले उसकी वास्कट उतरवा कर मुझे पहना दी. मैंने वही पहनी हुई है.

फोटू में गिर्दा नज़र नहीं आ रहा क्योंकि पूरी दोपहर वह दूर खड़ा, बीड़ी फूंकता, उस लद्धड़ हरी जैकेट को थामे हम दोनों को गाली देता रहा. शाम को ओल्ड मंक की संगत में उसका गुस्सा शांत हुआ. तब भी उसने वीरेनदा से वायदा लिया कि अगली सुबह उसे नई वास्कट के लिए साढ़े चार सौ रूपये देगा!

ज़ाहिर है वह हिसाब कभी पूरा नहीं हुआ.


"किताबें और कपड़े दोस्तों के बीच यात्रा करने के लिए बने होते हैं!" - वीरेनदा कहता था.

कौन थे चन्द्रसिंह गढ़वाली


1994 में भारत सरकार ने उनकी फोटू वाला एक डाक टिकट जारी किया और नामकरण किये जाने से छूट गईं एकाध सड़कों के नाम उनके नाम पर रख दिए. उत्तराखंड बनने के बाद जब राज्य सरकार को अपने स्थानीय नायकों की आवश्यकता पड़ी तो इतिहास के पन्ने पलटे गए और चन्द्रसिंह गढ़वाली का नाम खोज निकाला गया क्योंकि अनेक सरकारी योजनाओं का नामकरण करने को एक नाम की ज़रुरत थी.

आज चन्द्रसिंह गढ़वाली द्वारा पेशावर में की गयी एक ऐतिहासिक घटना की जयन्ती है सो उनके बारे में लिखा जाना ज़रूरी लग रहा है

अप्रैल 1930 में पेशावर के किस्साखानी बाज़ार में खां अब्दुल गफ्फार खां के नेतृत्व में हजारों लोग सत्याग्रह कर रहे थे. इसे कुचलने के लिए अंग्रेज़ हुकूमत ने रॉयल गढ़वाल राइफल्स को तैनात किया गया था. यह भारत के इतिहास के उस दौर की बात है जब गांधी के दांडी मार्च को बीते तीन-चार हफ्ते ही बीते थे और सारा देश आज़ादी के आन्दोलन में हिस्सेदारी करने को आतुर हो रहा था.

24 दिसंबर 1891 को गढ़वाल की थैलीसैण तहसील के एक सुदूर गाँव में जन्मे चन्द्रसिंह भी पेशावर में तैनात टुकड़ी का हिस्सा थे. बहुत कम पढ़ा-लिखा होने और अंग्रेज़ फ़ौज में नौकरी करने के बावजूद पिछले दस से भी अधिक वर्षों में चन्द्रसिंह ने देश में चल रहे स्वतंत्रता आन्दोलन से अपने आप को अछूता नहीं रखा था और फ़ौजी अनुशासन की सख्ती के होते हुए भी जब-तब आज़ादी की गुप्त मीटिंगों और सम्मेलनों में शिरकत की थी और देशभक्ति के सबक सीखे.

एक किस्सा यूं है कि जब 1921 में गांधी कुमाऊँ आये और बागेश्वर में उनकी सभा चल रही थी. चन्द्रसिंह अपनी प्रिय गोरखा टोपी पहने थे. गांधी ने उन्हें देखकर कहा - "गोरखा हैट पहने मुझे डराने को यह कौन बैठा है?" चन्द्रसिंह तुरंत खड़े होकर बोले - "सफ़ेद टोपी मिले तो मैं उसे भी पहन सकता हूँ." यह सुन कर सभा में मौजूद किसी आदमी ने चन्द्रसिंह की तरफ सफ़ेद गांधी टोपी फेंकी. चन्द्रसिंह ने वही टोपी गांधी की तरफ उछालते हुए कहा - "अगर ये बुड्ढा अपने हाथ से देगा तभी पहनूंगा!" गांधी ने चन्द्रसिंह की इच्छा पूरी की. गांधी ने बाद में कहा कि अगर उन्हें चन्द्रसिंह जैसे चार लोग मिल जाएं तो देश बहुत जल्दी आज़ाद कराया जा सकता है.

पेशावर में चल रहे सत्याग्रह की गूँज दूर तक पहुँच रही थी और अंग्रेज़ उसके दमन के लिए कुछ भी करने को तैयार थे. अपने हुक्मरानों की मंशा भांप चन्द्रसिंह पेशावर की हरिसिंह लाइन की अपनी बैरक में देश और स्वतंत्रता जैसे विषयों पर अपने साथियों के साथ लगातार चर्चा करते रहे थे.

23 अप्रैल 1930 के दिन पेशावर में हज़ारों सत्याग्रही जुलूस निकाल रहे थे. एक मोटरसाइकिल सवार अंग्रेज़ सिपाही इस भीड़ को चीरता हुआ निकला - कई लोग घायल हुए. गुस्साई भीड़ ने सिपाही को दबोच कर पीटा और मोटरसाइकिल को आग लगा दी.

इस घटना से मौके पर मौजूद अंग्रेज़ अफसरान घबरा गए और रॉयल गढ़वाल राइफल्स के सिपाहियों को किस्साखानी बाज़ार के काबुली फाटक पर तैनात कर दिया गया. कमांडर ने लाउडस्पीकर पर लोगों को घर जाने का आदेश दिया लेकिन भीड़ की उत्तेजना बेकाबू हो चुकी थी. कमांडर ने अंततः गोली चलाने का आर्डर जारी करते हुए चिल्लाते हुए कहा - "गढ़वाली ओपन फायर!"

कमांडर की ऐन बगल से उससे भी तेज़ एक निर्भीक आवाज़ आई - "गढ़वाली सीज़ फायर!" यह चन्द्रसिंह गढ़वाली थे जिनकी बात मानते हुए 67 सिपाहियों ने अपनी बंदूकें ज़मीन पर रख दीं.

1857 के ग़दर के बाद यह भारत के इतिहास में घटी सैन्य विद्रोह की सबसे बड़ी घटना थी. बौखलाए अंग्रेजों ने गोरे सिपाहियों को कत्लेआम का आदेश दिया. बड़ी संख्या में जानें गईं और चन्द्रसिंह गढ़वाली और उनके साथियों को गिरफ्तार कर लिया गया.

जब अंग्रेज़ कप्तान टकर ने बगावत की वजह जाननी चाही तो चन्द्रसिंह गढ़वाली का उत्तर था - " हम हिंदुस्तानी सिपाही हिंदुस्तान की हिफाजत के लिए भर्ती हुए हैं, न कि अपने भाइयों पर गोली चलाने के लिए!" कोर्टमार्शल के बाद सभी सिपाहियों को सज़ा हुई. आजीवन कारावास के रूप में सबसे बड़ी सजा चन्द्रसिंह को मिली.

चन्द्रसिंह की वीरता पर गांधी की प्रतिक्रिया आश्चर्यजनक थी. उन्होंने लिखा - "जो सिपाही गोली चलाने से इनकार करता है, वह अपनी प्रतिज्ञा भंग करता है. अगर में आज उन्हें हुक्मउदूली करना सिखाऊंगा तो मुझे डर लगा रहेगा कि शायद कल को मेरे राज में भी ऐसा ही करे." ये वही गांधी थे जो चन्द्रसिंह जैसे चार लोगों को लेकर देश को जल्दी आज़ाद करा देने की बात सार्वजनिक रूप से कह चुके थे. जवाहरलाल नेहरू ने उनके साहसिक कृत्य को फ़क़त "भावना से उपजा काण्ड" बताया.


चन्द्रसिंह गढ़वाली ने तमाम यातनाएं सहते हुए अपनी सज़ा पूरी की. उनकी संपत्ति पहले ही कुर्क कर ली गयी थी. भारत-छोड़ो आन्दोलन में शिरकत करने पर उन्हें फिर से जेल में डाल दिया गया. 1947 में आज़ादी मिलने के बाद भी स्वतंत्र भारत में इस योद्धा को अपने साम्यवादी विचारों के कारण कई बार जेल जाना पड़ा. शर्म की बात है कि आज़ाद भारत में जब उन्हें पहली बार गिरफ्तार किया गया तो वारंट में पेशावर काण्ड करने को उनका अपराध बताया गया था. 1957 में उन्होंने विधानसभा चुनाव भी लड़ा लेकिन उसमें वे बुरी तरह परास्त हुए.

आजीवन संघर्ष करते और भीषण आर्थिक अभावों से जूझते हुए चन्द्रसिंह गढ़वाली की 1 अक्टूबर1979 को दिल्ली के राममनोहर लोहिया अस्पताल में मृत्यु हुई थी.

Sunday, August 5, 2018

चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो

फ़िल्मी गानों की समीक्षा – 4

चलो दिलदार चलो, चाँद के पार चलो
प्रस्तावना: ऐतिहासिक महत्त्व की यह कविता 1960 के दशक के भारतीय विज्ञान की सीक्रेट फाइल्स में दफ्न एक कथा पर आधारित है.
काव्य समीक्षा: कुमाऊनी लोकगायन की बैर शैली में रची गयी इस कविता में कवि का डबल रोल है. कहीं-कहीं इसे उकसावा अथवा अनुमोदन शैली भी कहा जाता है. ऐसी कविताओं में हाँ में हाँ मिलाने का कायदा है. इसके अलावा जिस तरह तीन चौथाई बहुमत वाली सरकार द्वारा किसी भी अनापशनाप बिल को पास कराते बखत विपक्ष के लिए तर्क-जिरह या सवाल-जवाब की कतई गुंजाइश नहीं होती यहाँ भी कवि द्वारा पाठकों की भावनाओं का कोई ख़याल न करते हुए केवल स्वयं अपनी ही बात का अनुमोदन करना होता है.
कविता के प्रारम्भ में हृदयधारी प्रेयसी से चन्द्रमा से आगे जाने आह्वान किया जाता है – ‘चलो दिलदार चलो चाँद के पार चलो’. थोड़ा सा रूमानी हो जाने के इस चैलेन्ज के त्वरित रेस्पोंस में प्रेयसी उक्त कार्य के लिए अपने तत्पर होने की घोषणा करती है – ‘हम हैं तैयार चलो’.
प्रेम के प्रस्फुटन के शुरुआती लक्षण यहाँ देखे जा सकते हैं जब सद्यःनिर्मित प्रेमी-प्रेमिका बेवकूफों की तरह एक दूसरे की हर बात पर “वाव यू आर कूल मैन!” कहने की व्याधि से ग्रस्त पाए जाते हैं. और चंद्रमा से आगे जाने से अधिक कूल क्या हो सकता है! यह अलग बात है कि उनमें झगड़े शुरू होने में ज़्यादा समय नहीं लगता और वे अपने-अपने तरीकों से गम गलत करने के उपाय खोजना शुरू करते हैं.
कविता का दूसरा पैरा बतलाता है कि नायक-नायिका अपनी अंतरिक्ष यात्रा पर निकल चुके हैं या निकलने ही वाले हैं. वे नक्षत्रों के मध्य अलोप हो जाना चाहते हैं ताकि अन्याय और अत्याचार से भरी इस धरा का विचारमात्र भी उन्हें परेशान न करे -
आओ खो जाएं सितारों में कहीं
छोड़ दें आज ये दुनिया ये ज़मीं”
बिल्कुल प्रारंभ में इन पंक्तियों के लेखक ने जिस गुप्त कथा को संदर्भित किया है उसके परिप्रेक्ष्य में अगली पंक्तियाँ आधिकारिक प्रमाण का कार्य करती हैं. यात्रा के बीच में नायक नायिका से कहता है कि उसे नशा हो रहा है और उसे सम्हाला जाय – ‘हम नशे में हैं सम्भालो हमें तुम’. नायिका उससे भी अधिक धुत्त है और सूचित करती है कि उसका हाल तो नायक से भी खराब है – ‘नींद आती है जगा लो हमें तुम.’
पाठक को यहाँ यह जानने का अधिकार है कि प्रेमी युगल की ऐसी हालत हुई तो कैसे हुई. क्या कोई तीसरा था जिसने उनके सफ़र को बाधित करने की कोशिश की और उनके दूध में धतूरा घोल दिया? क्या नायक-नायिका इतने लम्बे सफ़र पर ठीक से तैयारी किये बिना निकल गए थे? सुधी पाठको, इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए आपको थोड़ा धैर्य रखना होगा.
कविता का अंत उसी शाश्वत थीम पर होता है कि जीवन में सब कुछ नाशवान और भुसकैट होने के बावजूद उल्फ़त अर्थात प्रेम की यात्रा अनंत चलती रहती है. यहाँ यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि नायक-नायिका अपने-अपने परिवारों के बड़े-बूढ़ों के कहने पर चंद्रमा से आगे तक की यात्रा करने का विचार त्याग कर वापस संसार में आ चुके हैं. आदमी को दफ्तर भी जाना होता है, दुकान खोलनी होती है, सुबह कुकर पर चार सीटी लगा कर दाल गलानी होती है, बच्चों का टिफिन तैयार कर उन्हें टैम्पू स्टैंड तक छोड़ने जाना होता है इत्यादि-इत्यादि! उल्फ़त का क्या है – उसने तो चलते रहना है. कोई टिकट थोड़े ही लगता है!
ऐतिहासिक शोध: 1962 में नेहरूजी के कहने पर विक्रम साराभाई ने इसरो शुरू किया था. अपनी स्थापना के अगले ही सप्ताह इस संस्थान ने ब्रह्माण्ड के सभी ग्रहों तक अपने लोगों को पहुंचाने का प्रोजेक्ट लांच कर दिया. उत्तराखंड के लमगड़ा नामक स्थान के निवासी हयातसिंह लमगड़िया, जिन्होंने सिविल इंजीनियरिंग की डिग्री हासिल कर रखी थी, को साराभाई अपना दायाँ हाथ मानते थे. चन्द्रमा और अन्य स्थानों पर भविष्य में बनाई जाने वाली हाउसिंग कालोनियों के डिजाइन बनने के लिए इन्हीं हयातसिंह को इंचार्ज बनाया गया था. नेहरूजी को मालूम था कि बढ़ती आबादी वाले हमारे देश में बहुत जल्द ज़मीन की कमी होने जा रही है और ऐसे हाउसिंग प्रोजेक्ट्स से ही देश का भला हो सकेगा.
उस रात इसरो की मैस में परोसे गए भरवां बैगन की सब्जी के सेवन के अतिरेक से हयातसिंह को पेट की मरोड़ उठी. जिसके चलते उन्हें स्थानीय सरकारी डिस्पेंसरी में भर्ती कराया गया. पेट की मरोड़ शांत होने के उपरान्त उन्होंने वहां रात्रिकालीन ड्यूटी कर रही दक्षिण भारतीय नर्स भद्रालक्ष्मी सुन्दरम को देखा और मशहूर हिन्दी लेखक ज्ञानरंजन के शब्दों का इस्तेमाल किया जाय तो उनका ‘स्टार्ट’ हो गया.
कालान्तर में जब तक हयातसिंह और भद्रालक्ष्मी सुन्दरम का प्रेम-संबंध सार्वजनिक होता, विक्रम साराभाई अपने पहले अंतरिक्ष मिशन की बागडोर अपने दक्षिणहस्त अर्थात हयात सिंह को सौंप चुके थे. मोहब्बतान्ध हयातसिंह लमगड़िया अपनी माशूका को साथ ले जाने की जिद पर अड़ गए. बताते हैं कि पहले तो साराभाई इसके लिए तैयार हो भी गए थे लेकिन स्टाफ के विरोध और राजनैतिक हस्तक्षेप के बाद उन्हें हयात सिंह से स्पष्ट मना करना पड़ा.
इससे खिन्न होकर हयातसिंह ने एक रात खूब शराब पी और अपनी मोहब्बत का हवाला देकर बेचारी भद्रालक्ष्मी के हलक में भी दो पैग उड़ेल दी. अच्छा टुन्न होने के उपरान्त हयातसिंह अपनी होने वाली शरीके-हयात को लेकर प्रयोगशाला में घुसे और उसे ले जाकर तकरीबन पूरा बन चुके अंतरिक्ष यान की ड्राइविंग सीट में बिठाकर रोमांटिक गाने सुनाते रहे. नशा बढ़ जाने के बाद वे बाकी सारी रात साराभाई को गाली बकते रहे. नशे की ही हालत में अलसुबह प्रयोगशाला से बाहर निकलते हुए हयातसिंह अंतरिक्ष यान को माचिस दिखा आए.
इसरो की सीक्रेट फाइल्स में इस अकल्पनीय हयातसिंह- भद्रालक्ष्मी कथा में पुलिस, राजद्रोह, भगोड़ा जैसे शब्दों की भरमार है. उन दोनों का आखिर में क्या हुआ यह जानने की लालसा मेरी भी है.
इस प्रकरण के दो दूरगामी परिणाम हुए –
1. भारत का अन्तरिक्ष प्रोग्राम खटाई में पड़ गया. हयातसिंह लमगड़िया को मिलने वाला सम्मान नील आर्मस्ट्रांग को मिला.
2. हयातसिंह द्वारा उस रात गाये गए गीतों की स्मृति से समीक्षित की जा रही अमर कविता का सृजन हुआ.
वीडियो रिव्यू: पहली बात तो ये कि बजरे या कश्ती पर बैठ कर अंतरिक्ष यात्रा नहीं की जा सकती.


Saturday, August 4, 2018

सोचेंगे तुम्हें प्यार करें कि नहीं

फ़िल्मी गानों की समीक्षा – 3
सोचेंगे तुम्हें प्यार करें कि नहीं

काव्य समीक्षा:
ख़्वाबों में छुपाया तुमको,
यादों में बसाया तुमको”
- कवि द्वारा नायिका का अपहरण कर उसे न सिर्फ सपनों में छिपाया गया है कवि की स्मृतियों में मुल्क में उसका फर्जी पासपोर्ट भी बनवा दिया गया है. इन अपराधों के लिए कवि को इन्डियन पीनल कोड की धाराओं 363 और 369 के तहत सज़ा हो सकती है. बेपरवाही कवियों के स्वभाव में होती है सो इस सब से बेखबर इस कविता का रचयिता इतना बौड़म है कि अपराध कर चुकने के पश्चात विचार करना चाहता है कि जिस मंशा से उसने जुर्म को अंजाम दे दिया वह ठीक थी भी या नहीं –
सोचेंगे तुम्हें प्यार करें कि नहीं.”
और
ये दिल बेकरार करें कि नहीं.”
मल्लब भैया पहले नहीं सोच सकते थे प्यार करना है या नहीं करना है. दिल को बेकरार करना है या नहीं करना है. हो सकता है कवि को भांग-सुल्फा इत्यादि का कुटैव भी रहा हो. जाहिर है ऐसे नशेड़ी-बौड़म कवि के पास मिमियाते हुए अपने अपराध को जस्टीफाई करने और दूसरों की मिन्नत के अलावा दूसरा कोई चारा नहीं बचता. कविता के दूसरे पैरे में कवि नायिका के सौदर्य इत्यादि के बारे में कंवल, गजल, चाँद का टुकड़ा जैसी घिसी हुई फूहड़ उपमाओं का प्रयोग करता है.
तीसरे पैरा में ज्ञात होता है कि कवि के घरवालों ने उसे डांट-डपट कर नायिका को उसके घर छोड़कर आने को कहा होगा और फिलहाल वह वह ऐसा कर भी आया है अलबत्ता लगातार भविष्यकाल में बात करता हुआ अपनी काली योजनाओं की तफसीलें पाठकों के साथ शेयर करता है. उसकी शब्दावली देखिये – देखेगी, होगा, रखेंगे, भर लेंगे, सुलझाएंगे, भुलाएंगे.
"जिस दिन तुमको देखेगी नज़र
जाने दिल पे होगा क्या असर
रखेंगे तुमको निगाहों में
भर लेंगे तुम्हें बाँहों में
ज़ुल्फ़ों को हम सुलझाएंगे
इश्क़ में दुनिया भुलाएंगे"
नायक संभवतः बेरोजगार है और घर पर रहकर अपने बाप की कमाई रोटी तोड़ा करता है. 363 और 369 के के बारे में उसे शायद किसी ने बता दिया है सो कविता की अंतिम पंक्ति में वह अपने बौड़मपन और नायिका के न मिल सकने की वास्तविकता के साथ समझौता करता हुआ अपनी औकात पर आकर अपनी वर्तमान परिस्थिति को स्वीकार कर लेता है – “ये बेकरारी अब तो होगी न कम.”
कवि को बताया जाना चाहिए कि बेटा बेकरारी कम कभी न होत्ती. दो महीने पहले टूटी टांग का पलस्तर अस्पताल जाकर कटा तो आये हो, दरद होत्ता रहेगा.
वीडियो रिव्यू: मोहल्ले के किसी ऐसे मुटाते हुए प्रौढ़ लौंडे टाइप के आदमी को काला चश्मा पहना कर उसके हाथ में उलटा गिटार (*गिटार न हो तो हारमोनियम या संपेरे की बीन या बैंडपार्टी के साथ चलने वाला झुन्ना भी चलेगा) थमा कर नायक बना दिया जाय जो बात-बात पर अपने ज़माने की पूनम ढिल्लों या किम्मी काटकर के नामों का जाप करने लगता हो - बताया जाता है ऐसा कवि ने अपने फुटनोट्स में लिखा था सो यही किया गया है. ऊपर से पिच्चर में नायक को सफ़ेद सूट पहनाया गया है. नायिका दर्शकों में बैठी हुई मंद-मंद मुस्करा रही है और उसकी मुस्कान का स्रोत इस तथ्य में निहित है कि घर पर जीजाजी आये हुए हैं और उन्होंने कह रखा है कि शाम को सारी बच्चापार्टी को आगरा चाट वाले के यहाँ गोलगप्पे दबाने ले चलेंगे.
दरअसल यह होली के समय गाई जाने वाली टुन्न-कविता है. बेहतर होता नायक को होली के रंगों में रंगा पुराना और फटा हुआ सफ़ेद कुर्ता-पाजामा पहना कर हुड़दंग मचाते समूह का नेतृत्व करते नायिका की गली में दिखाया जाता. इससे बौड़म कवि द्वारा भांग का सेवन कर लिया जाना भी न्यायोचित लगता और मोहल्ले के खड़ूस बुड्ढों को सबक सिखाने की नीयत से छत से कीचड़ से भरी बाल्टी रखे नायिका को कुछ एक्शन करने का अवसर मिलता. पिच्चर की स्पीड बढ़ती. यह अलग बात है कि नायिका जैसे ही नायक पर कीचड़ फेंकने को होती है उसके जीजाजी पीछे से आकर उसके गालों में नजीबाबाद से लाया हुआ असली मार्का सफेदा पोत जाते हैं.
क्षमा करें होली का नाम सुनते ही इन पंक्तियों का लेखक भावुक हो जाता है और उसके मानसपटल पर होलिका-प्रेरित उन तमाम फिल्म-कविताओं की पंक्तियाँ और उन पर रचित दृश्य गड्डमड्ड होने लगते हैं जिन्हें वास्तविकता में गा या परफॉर्म सकने की इच्छा लिए-लिए न जाने कितने कवियों की पीढ़ियां आगरा चाट भण्डार के सामने दम तोड़ गईं.

मल्लब आखिर क्यों? यही तुम्हारा ईमान है?

मालवीय नगर की बात क्या कहूं

हमारे समय के बड़े कवि की ताज़ा कविताओं की सीरीज़ – 2


प्रेम वाटिका
- असद ज़ैदी 

''मुस्कुराते क्यों हो?" तुमने कहा, ''यह घर
प्रेम ही से चला है अब तक."

''अभी तुम मिले देखा कितनी सुंदर बहू है मेरी
फ़ादार बेटा और इतना प्यारा सा इनका बच्चा...
और फिर मैं भी यहाँ हूँ जैसा तुमने कहा—
निश्चिंतप्रसन्न और सम्पन्न दिखती विधवा!"

मैंने घूमकर उसका घर देखा इतने बरस बाद
दो दालानउन में फलते फूलते मोगरेअनार,
हरसिंगारमौलसरीकचनारकरौंदाअमरूद,
गुड़हलहरदम गदराई मधुमालती...
''क्या बिना प्रेम के इतना सब हो सकता है?’’
मैंने पता नहीं किस धुन में कहा— बिल्कुल हो सकता है सीमा,
बिल्कुल हो सकता है...

क्या तुमने ज़ालिमों के बागीचे नहीं देखे...
उनकी चहल पहल भरी हवेलियाँ
जिनमें सदा हँसी गूँजा करती थी...
अलबत्ता जहाँ नियति ने अब अपार्टमेंट बना दिए हैं.

''हूँ...’’, उसने कहा, ''और तुम्हें क्या क्या याद है?"

मैंने कहाकुछ नहीं इतना याद है तुम स्कूल में सिर्फ
एक दरजा मुझसे आगे थीं पर रौब के साथ 'ए जूनियर’ कहकर
मुझको तलब किया करती थी.

''हूँ...’’, कहकर उसने पूछा, ''अपने स्कूल का क्या हाल है?"

ठीक ही चलता लगता है—मैंने कहा—उसके चारों तर
बस्तियाँ बस गई हैंपर स्कूल का परिसर बचा हुआ हैऔर हाँ,
पाकड़ का पेड़ अभी भी वहीं खड़ा हैमैदान के किनारे पर.
बच्चों से अब वहाँ रोज़ वंदे मातरम् गवाया जाता है...

''हूँ... और तुम्हारे मालवीय नगर के क्या हाल हैं?"

तुम्हारी ये ''हूँ...की आदत अभी तक गई नहींसीमा!

''ऐसा नहीं है लड़केबस तुम्हें देखकर लौट आई है.:"

और हम हँसने लगे चालीस साल लाँघ कर,
हँसते हँसते लगभग निर्वाण की दहलीज़ तक जा पहुँचे.

रही मालवीय नगर की बात सो क्या कहूं ...
जैसा भारत मालवीय जी चाहते थे वहाँ बसा हुआ है.


29.1.2018